बाजीराव पेशवा मराठा-सेना के प्रधान सेनापति थे। एक बार वे अनेक लड़ाइयों मे विजय हासिल करके अपनी सेना सहित राजधानी लौट रहे थे। रास्ते में उन्होंने मालवा में अपनी सेना का पड़ाव डाला। बहुत दूर से चलते-चलते आ रहे उनके सैनिक थककर चूर हो गए थे। वे भूख-प्यास से व्याकुल थे और उनके पास खाने के लिए पर्याप्त सामग्री भी नहीं थी।
बाजीराव ने अपने एक सरदार को बुलाकर आदेश दिया, तुम अपने साथ सौ सैनिकों को लेकर जाओ और किसी खेत से फसल कटवाकर छावनी में ले आओ।
सरदार सेना की एक टुकड़ी लेकर गाँव की ओर चल पड़ा। रास्ते में उसे एक किसान दिखाई दिया। सरदार ने उससे कहा, देखो, तुम मुझे इस इलाके के सबसे बड़े खेतपर ले चलो। किसान उन्हें एक बहुत बड़े खेत के पास ले गया। सरदार ने सैनिकों को आदेश दिया, सारी फसल काट लो और अपने-अपने बोरों में भर लो।
यह सुनकर किसान चकरा गया। उसने हाथ जोड़कर कहा, महाराज, आप इस खेत की फसल न काटें। मैं आपको एक दूसरे खेतपर ले चलता हूँ। उस खेत की फसल पककर एकदम तैयार है।
सरदार और उसके सैनिक किसान के साथ दूसरे खेत की ओर चल पड़े। यह खेत वहाँ से कुछ मीलों की दूरी पर और बहुत छोटा था। किसान ने कहा, महाराज, आपको जितनी फसल चाहिए, इस खेत से कटवा लीजिए।
सरदार को किसान की इस हरकत पर बहुत गुस्सा आया। उसने किसान से पूछा, यह खेत तो बहुत छोटा हैं। फिर तुम हमें वहाँ से इतनी दूर क्यों ले आए?
किसान ने नम्रतापूर्वक उत्तर दिया, महाराज, नाराज मत होइए। वह खेत मेरा नहीं था। यह खेत मेरा है। इसीलिए मैं आपको यहाँ ले आया।
किसान के जवाब से सरदार का गुस्सा ठंड़ा हो गया। वह अनाज कटवाए बिना ही पेशवा के पास पहुँचा। उसने यह बात पेशवा को बताई। पेशवा को अपनी गलती का एहसास हो गया। वे सरदार के साथ स्वयं किसान के खेत पर गए। उन्होंने किसान को उसकी फसल के बदले ढेर सारी अशरफियाँ दीं और फसल कटवाकर छावनी पर ले आए।
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