युद्ध के नौंवे दिन अर्जुन ने वीरवर भीष्म पर बाणों की बड़ी भारी वृष्टि की। इधर द्रुपद की प्रेरणा से शिखण्डी ने भी पानी बरसाने वाले मेघ की भाँति भीष्म पर बाणों की झड़ी लगा दी। दोनों ओर के हाथीसवार, घुड़सवार, रथी और पैदल एक-दूसरे के बाणों से मारे गये। भीष्म की मृत्यु उनकी इच्छा के अधीन थी।
जब पांडवों को ये समझ में आ गया की भीष्म के रहते वो इस युद्ध को नहीं जीत सकते तो श्रीकृष्ण के सुझाव पर उन्होंने भीष्म पितामह से ही उनकी मृत्यु का उपाय पूछा. उन्होंने कहा कि जब तक मेरे हाथ में शस्त्र है तब तक महादेव के अतिरिक्त मुझे कोई नहीं हरा सकता. उन्होंने ने ही पांडवों को सुझाव दिया कि शिखंडी को सामने करके युद्ध लड़े. वो जानते थे कि शिखंडी पूर्व जन्म में अम्बा थी इसलिए वो उसे कन्या ही मानते थे.
१०वे दिन के युद्ध में अर्जुन ने शिखंडी को आगे अपने रथ पर बिठाया. शिखंडी को आगे देख कर भीष्म ने अपना धनुष त्याग दिया. उनके शस्त्र त्यागने के बाद अर्जुन ने उन्हें बाणो कि शय्या पर सुला दिया। वे उत्तरायण की प्रतीक्षा में भगवान् विष्णु का ध्यान और स्तवन करते हुए समय व्यतीत करने लगे। भीष्म के बाण-शय्या पर गिर जाने के बाद जब दुर्योधन शोक से व्याकुल हो उठा, तब आचार्य द्रोण ने सेनापतित्व का भार ग्रहण किया।
उधर हर्ष मनाती हुई पाण्डवों की सेना में धृष्टद्युम्न सेनापति हुए। उन दोनों में बड़ा भयंकर युद्ध हुआ, जो यमलोक की आबादी को बढ़ाने वाला था।तेरहवे दिन के युद्ध में, कौरव सेना के प्रधान सेनापति, गुरु द्रोणाचार्य द्वारा, युधिष्ठिर को बंदी बनाने के लिए चक्रव्यूह/पद्मव्यूह की रचना की गई। पाण्डव पक्ष में केवल कृष्ण और अर्जुन ही चक्रव्यूह भेदन जानते थे। लेकिन उस दिन उन्हें त्रिगत नरेश बंधु युद्ध करते-करते चक्रव्यूह स्थल से बहुत दूर ले गए। त्रिगत दुर्योधन के शासनाधीन एक राज्य था।
अर्जुन पुत्र अभिमन्यु को चक्रव्यूह में केवल प्रवेश करना आता था, उससे निकलना नहीं, जिसे उसने तब सुना था जब वह अपनी माता के गर्भ में था और उसके पिता अर्जुन उसकी माता को यह विधि समझा रहे थे और बीच में ही उन्हें नींद आ गई। लेकिन जैसे ही अभिमन्यु ने चक्रव्यूह में प्रवेश किया, सिन्धु नरेश – जयद्रथ ने प्रवेश मार्ग रोक लिया और अन्य पाण्डवों को भीतर प्रवेश नहीं करने दिया। तब शत्रुचक्र में अभिमन्यु अकेला पड़ गया। अकेला होने पर भी वह वीरता से लड़ा और उसने अकेले ही कौरव सेना के बड़े-बड़े योद्धाओं को परास्त किया जिन्में स्वयं कर्ण, द्रोण और दुर्योधन भी थे।
कर्ण और दुर्योधन ने गुरु द्रोण के निर्देशानुसार अभिमन्यु का वध करने का निर्णय लिया। कर्ण ने बाण चलाकर अभिमन्यु का धनुष और रथ का एक पहिया तोड़ दिया जिससे वह भूमि पर गिर पड़ा और अन्य कौरवों ने उसपर आक्रमण कर दिया। इस युद्ध में अभिमन्यु मारा गया।
युद्ध समाप्ति पर जब अर्जुन को ये पता लगता है कि अभिमन्यु के मारे जाने में जयद्रथ का सबसे बड़ा हाथ है तो वह प्रतिज्ञा लेता है की अगले दिन का सूर्यास्त होने से पूर्व वह जयद्रथ का वध कर देगा अन्यथा अग्नि समाधि ले लेगा।
चौदहवें दिन का युद्ध अविलक्षण रूप से सूर्यास्त के बाद तक चलता रहा और भीमपुत्र घटोत्कच, जो अर्ध-असुर था, कौरव सेनाओं का बड़े पैमाने पर संहार करता रहा। आमतौर पर, असुर रात्री के समय बहुत अधिक शक्तिशाली हो जाते हैं। दुर्योधन और कर्ण ने वीरता से उसका सामना किया और उससे युद्ध किया। अंततः जब यह लगने लगा कि उसी रात घटोत्कच सारी कौरव सेना का संहार कर देगा तो, दुर्योधन ने कर्ण से ये निवेदन किया कि वह किसी भी प्रकार से इस समस्या से छुटकारा दिलाए।
कर्ण को विवश होकर शक्ति अस्त्र घटोत्कच पर चलाना पड़ा। यह अस्त्र देवराज इंद्र द्वारा कर्ण को उसकी दानपरायण्ता के सम्मान स्वरूप दिया गया था (जब कर्ण ने अपने कवच-कुंडल इंद्र को दान दे दिए थे)। लेकिन कर्ण इस अस्त्र का प्रयोग केवल एक बार कर सकता था, जिसके बाद यह अस्त्र इंद्र के पास लौट जाएगा। इस प्रकार, शक्ति अस्त्र का प्रयोग घटोत्कच पर करने के बाद वह इसे बाद में अर्जुन पर ना कर सका।
विराट और द्रुपद आदि राजा द्रोणरूपी समुद्र में डूब गये।उस समय द्रोण काल के समान जान पड़ते थे। इतने ही में उनके कानों में यह आवाज आयी कि ‘अश्वत्थामा मारा गया’। इतना सुनते ही आचार्य द्रोण ने अस्त्र शस्त्र त्याग दिये। ऐसे समय में धृष्टद्युम्न के बाणों से आहत होकर वे पृथ्वी पर गिर पड़े।
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