सत्य ज्ञान के समन्वय में निहित

सम्राट ब्रह्मदत्त ने सुना कि उनके चारों पुत्र विद्याध्ययन कर लौट रहे हैं, तो उनके हर्षातिरेक का ठिकाना न रहा। स्वतःजाकर नगर- द्वार पर उन्होंने अपने पुत्रों की आगवानी की और बड़े लाड़- प्यार के साथ उन्हें राज- प्रासाद ले आये। राजधानी में सर्वत्र उल्लास और आनन्द की धूम मच गई।

किन्तु हवा के झोंके के समान आई वह प्रसन्नता एकाएक तब समाप्त होती जान पड़ी जब चारों पुत्रों में परस्पर श्रेष्ठता का विवाद उठ खड़ा हुआ।
पहले राजकुमार का कहना था- मैंने खगोल विद्या पढ़ी है- खगोल विद्या से मनुष्य को विराट का ज्ञान होता है इसलिये मेरी विद्या सर्वश्रेष्ठ है।

सत्य- असत्य का जितना अच्छा निर्णय मैं दे सकता हूँ, दूसरा नहीं।

द्वितीय राजकुमार का तर्क था कि तारों की स्थिति और उनके स्वभाव का ज्ञान प्राप्त कर लेने से कोई ब्रह्मा नहीं हो जाता- ज्ञान तो मेरा सार्थक है क्योंकि मैने वेदान्त पर आचार्य किया है। ब्रह्म विद्या से बढ़कर कोई विद्या नहीं, इससे लोक- परलोक के बन्धन खुलते हैं। इसलिये मैं अपने को श्रेष्ठ कहूँ, तब तो कोई बात है। इन भाई साहब को ऐसा मानने का क्या अधिकार?

तीसरे राजकुमार का मत था- वेदान्त को व्यवहार में प्रयोग न किया जाए, साधनाएँ न की जाएँ तो वाचिक ज्ञान मात्र से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता- देखने वाली बात है कि हम अपने सामाजिक जीवन में कितने व्यवस्थित हैं- मैंने सामजशास्त्र पढ़ा है इसलिये मेरा दावा है कि श्रेष्ठता का अधिकारी मैं ही हो सकता हूँ।

चौथे रसायनशास्त्री राजकुमार इन सबकी बातें सुनकर हँसे और बोले- बन्धुओं झगड़ो मत। इस संसार में श्रेष्ठता का माप दण्ड है लक्ष्मी। तुम जानते हो मैंने लोहे और ताँबे को भी सोना बनाने वाली विद्या पढ़ी है। पारद को फूँककर मैं अलौकिक औषधियाँ बना सकता हूँ और तुम सबकी विद्या खरीद लेने जितना अर्थ उपार्जन कर सकता हूँ, तब फिर बोलो, मेरी विद्या श्रेष्ठ हुई या नहीं?

श्रेष्ठता सिद्धि के अखाड़े के चारों, प्रतिद्वन्द्वियों में से किसी को भी हार न मानते देख सम्राटब्रह्मदत्त अत्यन्त दुःखी हुये। सारी स्थिति पर विचारकर एक योजना बनाई। उन्होंने एक राजकुमार को पतझड़ के समय जंगल में भेजा और किंशुक तरु को पहचानकर आने को कहा। उस समयकिंशुक में एक भी पत्ता नहीं था। वह ठूँठ खड़ा था, सो पहले राजकुमार ने यह ज्ञान प्राप्त कियाकिंशुक एक ऐसा वृक्ष है जिसमें पत्ते नहीं होते। अगले माह दूसरे राजकुमार गये, तब तक कोंपलेंफूट चुकी थीं। तीसरे माह उसमें पुष्प आ चुके थे और चौथे माह फूल- फलों में परिवर्तित हो चुके थे। हर राजकुमार ने किंशुक की अलग- अलग पहचान बताई।

तब राजपुरोहित ने उन चारों को पास बुलाया और कहा- ‘‘तात्! किंशुक तरु इस तरह का होता है- चार महीने उसमें परिवर्तन के होते हैं। तुम लोगों में से हर एक ने उसका भिन्न रूप देखा पर यथार्थ कुछ और ही था। इसी प्रकार संसार में ज्ञान अनेक प्रकार के हैं पर सत्य उन सबके समन्वय में है। किसी एक में नहीं।’’

राजकुमार सन्तुष्ट हो गये और उस दिन से श्रेष्ठता के अहंकार का परित्याग कर परस्पर मिल- जुलकर रहने लगे।

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