कौआ रत्न

बहुत समय पहले की बात है। एक वन में एक विशाल बरगद का पेड़ कौओं की राजधानी था। हजारों कौए उस पर वास करते थे। उसी पेड़ पर कौओं का राजा मेघवर्ण भी रहता था।

बरगद के पेड़ के पास ही एक पहाड़ी थी, जिसमें असंख्य गुफाएं थीं। उन गुफाओं में उल्लू निवास करते थे, उनका राजा अरिमर्दन था। अरिमर्दन बहुत पराक्रमी राजा था। उसे कौओं से इतनी नफरत थी कि किसी कौए को मारे बिना वह भोजन नहीं करता था।

जब बहुत अधिक कौए मारे जाने लगे तो उनके राजा मेघवर्ण को बहुत चिंता हुई। उसने कौओं की एक सभा इस समस्या पर विचार करने के लिए बुलाई। बहुत-से बुद्धिमान कौओं ने कांव-कांव करके अपने सुझाव दिए।

कौओं में सबसे चतुर व बुद्धिमान स्थिरजीवी नामक कौआ था, जो चुपचाप बैठा सबकी दलीलें सुन रहा था। राजा मेघवर्ण उसकी ओर मुड़ा, ‘महाशय, आप चुप हैं। मैं आपकी राय जानना चाहता हूं।’

स्थिरजीवी बोला, ‘महाराज, शत्रु अधिक शक्तिशाली हो तो छलनीति से काम लेना चाहिए।’

‘कैसी छलनीति? जरा साफ-साफ बताइए,’ राजा ने कहा।

स्थिरजीवी बोला, ‘आप मुझे भला-बुरा कहिए और मुझ पर जानलेवा हमला कीजिए।’

मेघवर्ण चौंका, ‘यह आप क्या कह रहे हैं स्थिरजीवी?’

स्थिरजीवी राजा मेघवर्ण वाली डाली पर जाकर कान में बोला, ‘छलनीति के लिए हमें यह नाटक करना पड़ेगा। हमारे आसपास के पेड़ों पर उल्लू जासूस हमारी इस सभा की सारी कार्यवाही देख रहे हैं। उन्हें दिखाकर हमें फूट और झगड़े का नाटक करना होगा। इसके बाद आप सारे कौओं को लेकर उत्तर के पर्वत पर जाकर मेरी प्रतीक्षा करें। मैं उल्लुओं के दल में शामिल होकर उनके विनाश का सामान जुटाऊंगा। घर का भेदी बनकर उनकी लंका ढाऊंगा।’

फिर नाटक शुरू हुआ। स्थिरजीवी चिल्लाकर बोला, ‘मैं जैसा कहता हूं, वैसा कर राजा के बच्चे। क्यों हमें मरवाने पर तुला है?’

मेघवर्ण चीख उठा, ‘गद्दार, राजा से ऐसी बदतमीजी से बोलने की तेरी हिम्मत कैसे हुई?’ कई कौए एक साथ चिल्ला उठे, ‘इस गद्दार को मार दो।’

राजा मेघवर्ण ने अपने पंख से स्थिरजीवी को जोरदार झापड़ मारकर टहनी से गिरा दिया और घोषणा की, ‘मैं गद्दार स्थिरजीवी को कौआ समाज से निकाल रहा हूं। अब से कोई कौआ इस नीच से कोई संबध नहीं रखेगा।’
आसपास के पेड़ों पर छिपे बैठे उल्लू जासूसों की आंखें चमक उठीं। उल्लुओं के राजा को जासूसों ने सूचना दी कि कौओं में फूट पड़ गई है। मारपीट और गाली-गलौच हो रही हैं। इतना सुनते ही उल्लुओं के सेनापति ने राजा से कहा, ‘महाराज, यही मौका है कौओं पर आक्रमण करने का। इस समय हम उन्हें आसानी से हरा देंगे।’

उल्लुओं के राजा अरिमर्दन को सेनापति की बता सही लगी। उसने तुरंत आक्रमण का आदेश दे दिया। बस, फिर क्या था हजारों उल्लुओं की सेना बरगद के पेड़ पर आक्रमण करने चल दी, परंतु वहां एक भी कौआ नहीं मिला।

मिलता भी कैसे? योजना के अनुसार मेघवर्ण सारे कौओं को लेकर उत्तर के पर्वत की ओर कूच कर गया था। पेड़ खाली पाकर सारे उल्लू ‘हू-हू’ की आवाज निकालकर अपनी जीत की घोषणा करने लगे।

नीचे झाड़ियों में गिरा पड़ा स्थिरजीवी कौआ यह सब देख रहा था। स्थिरजीवी ने कांव-कांव की आवाज निकाली। उसे देखकर जासूस उल्लू बोला, ‘अरे, यह तो वही कौआ है, जिसे इनका राजा धक्का देकर गिरा रहा था और अपमानित कर रहा था।’

उल्लुओं का राजा भी आया। उसने पूछा, ‘तुम्हारी यह दुर्दशा कैसे हुई?’ स्थिरजीवी बोला ‘मैं राजा मेघवर्ण का नीतिमंत्री था। मैंने उनको नेक सलाह दी कि उल्लुओं का नेतॄत्व इस समय एक पराक्रमी राजा कर रहे हैं। हमें उल्लुओं की अधीनता स्वीकार कर लेनी चाहिए। मेरी बात सुनकर मेघवर्ण क्रोधित हो गया और मुझे फटकार कर कौओं की जाति से बाहर कर दिया। मुझे अपनी शरण में ले लीजिए।’
उल्लुओं का राजा अरिमर्दन सोच में पड़ गया। उसके सयाने नीति सलाहकार ने कान में कहा, ‘राजन, शत्रु की बात का विश्वास नहीं करना चाहिए। यह हमारा शत्रु है। इसे मार दो।’ एक चापलूस मंत्री बोला, ‘नहीं महाराज! इस कौए को अपने साथ मिलाने में बड़ा लाभ रहेगा। यह कौओं के घर के भेद हमें बताएगा।’

राजा को भी स्थिरजीवी को अपने साथ मिलाने में लाभ नजर आया और उल्लू स्थिरजीवी कौए को अपने साथ ले गए।

स्थिरजीवी हाथ जोड़कर बोला, ‘महाराज, आपने मुझे शरण दी, यही बहुत है। मुझे अपनी शाही गुफा के बाहर एक पत्थर पर सेवक की तरह ही रहने दीजिए। वहां बैठकर आपके गुण गाते रहने की ही मेरी इच्छा है।’ इस प्रकार स्थिरजीवी शाही गुफा के बाहर डेरा जमाकर बैठ गया।

गुफा में नीति सलाहकार ने राजा से फिर से कहा, ‘महाराज! शत्रु पर विश्वास मत करो। उसे अपने घर में स्थान देना तो आत्महत्या करने समान है।’ अरिमर्दन ने उसे क्रोध से देखा, ‘तुम मुझे ज्यादा नीति समझाने की कोशिश मत करो। चाहो तो तुम यहां से जा सकते हो।’ नीति सलाहकार उल्लू अपने दो-तीन मित्रों के साथ वहां से सदा के लिए चला गया। जाने से पहले उसने कहा,
‘विनाशकाले विपरीत बुद्धि।’

कुछ दिनों बाद स्थिरजीवी लकड़ियां लाकर गुफा के द्वार के पास रखने लगा, ‘सरकार, सर्दियां आने वाली हैं। मैं लकड़ियों की झोपड़ी बनाना चाहता हूं ताकि ठंड से बचाव हो।’ धीरे-धीरे लकड़ियों का काफी ढेर जमा हो गया।

एक दिन जब सारे उल्लू सो रहे थे तो स्थिरजीवी वहां से उड़कर सीधे उस पर्वत पर पहुंचा, जहां मेघवर्ण और कौओं सहित उसी की प्रतीक्षा कर रहे थे। स्थिरजीवी ने कहा, ‘अब आप सब निकट के जंगल से जहां आग लगी है, एक-एक जलती लकड़ी चोंच में उठाकर मेरे पीछे आइए।’

कौओं की सेना चोंच में जलती लकड़ियां पकड़ स्थिरजीवी के साथ उल्लुओं की गुफाओं में आ पहुंची। स्थिरजीवी द्वारा ढेर लगाई लकड़ियों में आग लगा दी गई। सभी उल्लू जलने या दम घुटने से मर गए। राजा मेघवर्ण ने

स्थिरजीवी को ‘कौआ रत्न’ की उपाधि दी।

सीखः शत्रु को अपने घर में पनाह देना अपने ही विनाश का सामान जुटाना है।

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