धर्म का आचरण

काशी के राजा ब्रह्मादत्त के राज्य में धर्मपाल नामक एक ब्राह्मण रहता था। उसमें नाम के मुताबिक ही गुण थे।

यहां तक कि उसके घर के नौकर-चाकर भी बड़े सदाचारी, दानी तथा उपवासपरायण थे।

धर्मपाल के एक ही पुत्र था। जब वह वयस्क हो गया, तो पिता ने पर्याप्त धन देकर उसे तक्षशिला महाविद्यालय में पढ़ने के लिए भेज दिया।

एक दिन वहां के आचार्य का एक युवा पुत्र मर गया। श्मशान से लौटकर सभी आपस में बात कर रहे थे-‘देखो! कैसा युवा लड़का था। बेचारा चल बसा।’ धर्मपाल का लड़का भी वहीं बैठा यह सुन रहा था।

उसके मुंह से निकल पड़ा, ‘पर भाई! हम लोगों के यहां तो कोई युवा नहीं मरता।’ सभी लड़के उसकी खिल्ली उड़ाने लगे।

बात आचार्य तक पहुंची, तो उन्हें भी यह सुनकर आश्चर्य हुआ। किसी को विद्यालय का कार्यभार सौंपकर आचार्य बकरे की कुछ हड्डियां साथ में लेकर काशी की ओर चल पड़े। किसी प्रकार वह धर्मपाल के गांव पहुंच गए।

धर्मपाल ने आचार्य का बड़ा स्वागत-सत्कार किया। बातचीत शुरू हुई, तो आचार्य ने कहा, ‘धर्मपाल, तुम्हारा पुत्र सहसा चल बसा। यह महान क्लेश की बात है।’ इस पर धर्मपाल बड़े जोर से हंस पड़ा और बोला-‘महाराज, कोई दूसरा मरा होगा।

हमारे यहां तो सात पीढ़ियों से कोई भी युवा नहीं मरा।’ अब आचार्य ने हड्डियां दिखाईं। धर्मपाल बोला, ‘महाराज, ये हड्डियां तो बकरे-कुत्ते की होंगी। हमारे यहां तो ऐसा होता ही नहीं।’ अंत में आचार्य ने उससे युवावस्‍था में किसी के न मरने का कारण पूछा।

धर्मपाल ने कहा- ‘महाराज, हम धर्म का आचरण करते हैं, पाप कर्मों से दूर रहते हैं, सत्संग करते हैं और दुर्जन से दूर रहते हैं। दान देते समय मीठे वचन बोलते हैं।

श्रमण, ब्राह्मण, प्रवासी, याचक, दरिद्र-इन सभी को अन्न-जल से संतुष्ट रखते हैं। हमारे यहां के पुरुष पत्नीव्रत और स्त्रियां पतिव्रत का पालन करती हैं। इसी कारण धर्म हम धर्मचारियों की रक्षा करता है और हम लोग अल्पावस्‍था में कभी मौत के मुंह में नहीं जाते।’

Share with us : Facebooktwitterredditpinterestlinkedinmail

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *