कुछ भी करें, लोग आलोचना करते ही हैं; इसलिए उस ओर ध्यान न देते हुए स्वयंको जो योग्य लगता है, वैसा आचरण करना ही हितदायक है ।
एक बार एक पिता-पुत्र एक घोडा लेकर जा रहे थे । पुत्रने पितासे कहा ‘‘आप घोडेपर बैठें, मैं पैदल चलता हूं ।’’ पिता घोडेपर बैठ गए । मार्गसे जाते समय लोग कहने लगे, ‘‘बाप निर्दयी है । पुत्रको धूपमें चला रहा है तथा स्वयं आरामसे घोडेपर बैठा है । यह सुनकर पिताने पुत्रको घोडेपर बैठाया तथा स्वयं पैदल चलने लगे । आगे जो लोग मिले, वे बोले, ‘‘देखो पुत्र कितना निर्लज्ज है ! स्वयं युवा होकर भी घोडेपर बैठा है तथा पिताको पैदल चला रहा है ।’’ यह सुनकर दोनों घोडेपर बैठ गए । आगे जानेपर लोग बोले, ‘‘ये दोनों ही भैंसेके समान हैं तथा छोटेसे घोडेपर बैठे हैं । घोडा इनके वजनसे दब जाएगा ।’’ यह सुनकर दोनों पैदल चलने लगे । कुछ अंतर चलनेपर लोगोंका बोलना सुनाई दिया, ‘‘कितने मूर्ख हैं ये दोनों ? साथमें घोडा है, फिर भी पैदल ही चल रहे हैं ।’’
तात्पर्य : कुछ भी करें, लोग आलोचना ही करते हैं; इसलिए लोगोंको क्या अच्छा लगता है, इस ओर ध्यान देनेकी अपेक्षा ईश्वरको क्या अच्छा लगता है, इस ओर ध्यान दीजिए । सर्व संसारको प्रसन्न करना कठिन है, ईश्वरको प्रसन्न करना सरल है ।
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