कर्ण और अर्जुन

द्रोणाचार्य ने पाण्डव तथा कौरव राजकुमारों के शस्त्रास्त्र विद्या की परीक्षा लेने का विचार किया। इसके लिये एक विशाल मण्डप बनाया गया। वहाँ पर राज परिवार के लोग तथा अन्य प्रतिष्ठित व्यक्ति उपस्थित हुये। सबसे पहले भीम एवं दुर्योधन में गदा युद्ध हुआ। दोनों ही पराक्रमी थे। एक लम्बे अन्तराल तक दोनों के मध्य गदा युद्ध होता रहा किन्तु हार-जीत का फैसला न हो पाया। अन्त में गुरु द्रोण का संकेत पाकर अश्वत्थामा ने दोनों को अलग कर दिया।

गदा युद्ध के पश्चात् अर्जुन अपनी धनुर्विद्या का प्रदर्शन करने के लिये आये। उन्होंने सबसे पहले आग्नेयास्त्र चला कर भयंकर अग्नि उत्पन्न की फिर वरुणास्त्र चला कर जल की वर्षा की जिससे प्रज्वलित अग्नि का शमन हो गया। इसके पश्चात् उन्होंने वायु-अस्त्र चला कर आँधी उत्पन्न की तथा पार्जन्यास्त्र से बादल उत्पन्न कर के दिखाया। यही नहीं अन्तर्ध्यान-अस्त्र चलाया और वहाँ पर उपस्थित लोगों की दृष्टि से अदृश्य हो कर सभी को आश्चर्य में डाल दिया। वहाँ पर उपस्थित समस्त जन उनकी धनुर्विद्या की प्रशंसा करने लगे।

अचानक उसी समय एक सूर्य के समान प्रकाशवान योद्धा हाथ में धनुष लिये रंगभूमि में उपस्थित हुये। वे कर्ण थे। कर्ण ने भी उन सभी कौशलों का प्रदर्शन किया जिसका कि प्रदर्शन अर्जुन पहले ही कर चुके थे। अपने कौशलों का प्रदर्शन कर चुकने के पश्चात् कर्ण ने अर्जुन से कहा कि यदि तुम्हें अपनी धनुर्विद्या पर इतना ही गर्व है तो मुझसे युद्ध करो। अर्जुन को कर्ण का इस प्रकार ललकारना अपना अपमान लगा। अर्जुन ने कहा, “बिना बुलाये मेहमान की जो दशा होती है, आज मैं तुम्हारी भी वही दशा कर दूँगा।” इस पर कर्ण बोले, “रंग मण्डप सबके लिये खुला होता है, यदि तुममें शक्ति है तो धनुष उठाओ।”

उनके इस विवाद को सुन कर नीति मर्मज्ञ कृपाचार्य बोल उठे, “कर्ण! अर्जुन कुन्ती के पुत्र हैं। वे अवश्य तुम्हारे साथ युद्ध के लिये प्रस्तुत होंगे। किन्तु युद्ध के पूर्व तुम्हें भी अपने वंश का परिचय देना होगा क्योंकि राजवंश के लोग कभी नीच वंश के लोगों के साथ युद्ध नहीं करते।” कृपाचार्य के वचन सुन कर कर्ण का मुख श्रीहीन हो गया और वे लज्जा का अनुभव करने लगे।

कर्ण की ऐसी हालत देख कर उनके मित्र दुर्योधन बोल उठे, “हे गुरुजनों एवं उपस्थित सज्जनों! मैं तत्काल अपने परम मित्र कर्ण को अंग देश का राजपद प्रदान करता हूँ। कर्ण इसी क्षण से अंग देश का राजा है। अब एक देश का राजा होने के नाते उन्हें अर्जुन से युद्ध का अधिकार प्राप्त हो गया है।” दुर्योधन की बात सुन कर भीम कर्ण से बोले, “भले ही तुम अब राजा हो गये हो, किन्तु हो तो तुम सूतपुत्र ही। तुम तो अर्जुन के हाथों मरने के भी योग्य नहीं हो। तुम्हारी भलाई इसी में है कि शीघ्र जाकर अपना घोड़े तथा रथ की देखभाल करो।”

वाद-विवाद बढ़ता गया और वातावरण में कटुता आने लगी। यह विचार कर के कि बात अधिक बढ़ने न पाये, द्रोणाचार्य एवं कृपाचार्य ने उस सभा को विसर्जित कर दिया।

Share with us : Facebooktwitterredditpinterestlinkedinmail

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *