सीख

एक बार की बात है। एक डाकू गुरु नानकदेवजी के पास आया और चरणों में माथा टेकते हुए बोला- “मैं डाकू हूँ, अपने जीवन से तंग हूँ। मैं सुधरना चाहता हूँ, मेरा मार्गदर्शन कीजिए, मुझे अंधकार से उजाले की ओर ले चलिए।” नानकदेवजी ने कहा-“तुम आज से चोरी करना और झूठ बोलना छोड़ दो, सब ठीक हो जाएगा।” डाकू प्रणाम करके चला गया। कुछ दिनों बाद वह फिर आया और कहने लगा-“मैंने झूठ बोलने और चोरी से मुक्त होने का भरसक प्रयत्न किया, किंतु मुझसे ऐसा न हो सका। मैं चाहकर बदल नहीं सका। आप मुझे कोई दूसरा उपाय बताइए।”

गुरु नानक सोचने लगे कि इस डाकू को सुधरने का क्या उपाय बताया जाए। उन्होंने अंत में कहा-“जो तुम्हारे मन में आए करो, लेकिन दिनभर झूठ बोलने, चोरी करने और डाका डालने के बाद शाम को उन्ही लोगों के सामने किए हुए कामों का बखान करो।”

डाकू को यह उपाय सरल जान पड़ा। इस बार डाकू पलटकर नानकदेवजी के पास नहीं आया क्योंकि जब वह दिनभर चोरी आदि करता और शाम को जिसके घर से चोरी की है उसकी चौखट पर यह सोचकर पहुँचता कि नानकदेवजी ने जो कहा था कि तुम अपने दिनभर के कर्म का बखान करके आना लेकिन वह अपने बुरे कामों के बारे में बताते में बहुत संकोच करता और आत्मग्लानि से पानी-पानी हो जाता। वह बहुत हिम्मत करता कि मैं सारे काम बता दूँ लेकिन वह नहीं बता पाता। हताश-निराश मुँह लटकाए वह डाकू एक दिन अचानक नानकदेवजी के सामने आया। अब तक न आने का कारण बताते हुए उसने कहा-“मैंने तो उस उपाय को बहुत सरल समझा था, लेकिन वह तो बहुत कठिन निकला। लोगों के सामने अपनी बुराइयाँ कहने में लज्जा आती है, अतः मैंने बुरे काम करना ही छोड़ दिया।” बस नानकदेवजी यही तो सुनना चाहते थे उन्होंने उसे अपराधी से अच्छा इंसान बना दिया था।

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