ज्ञान का प्रकाश

प्राचीन काल में पाटलीपुत्र में एक सुदर्शन नाम का अत्यंत गुणी राजा राज्य करता था| एक दिन उस राजा ने कवि के द्वारा पढ़े जाते हुए दो श्लोको को सुना जो इस प्रकार है:
१.ज्ञान(शास्त्र) ही मानव के वास्तविक नेत्र होते हैं क्योंकि ज्ञान के द्वारा ही हमारे समस्त दुविधाओं एवं भ्रमों को दूर किया जा सकता है ;सत्य एवं तथ्य का परिचय भी ज्ञान के ही माध्यम से सम्भव हुआ करता है तथा अपनी क्रियायों के भावी परिणाम का अनुमान भी हम केवल अपने ज्ञान के द्वारा ही लगा सकते हैं|
२.यौवन का झूठा घमण्ड ,धन-सम्पत्ति का अहंकार ,प्रभुत्त्व अर्थात् सब को अपने आधीन रखने की महत्त्वाकांक्षा तथा अविवेकिता यानि कि सही और गलत के बीच अंतर को न पहचानना—इन चारों में से एक का भी यदि हम शिकार बन गये तो जीवन व्यर्थ होने की पूरी-पूरी सम्भावना होती है; और फिर जहाँ ये चारों ही एक साथ हों तो फिर तो कहना ही क्या !

राजा ने जैसे ही ये श्लोक सुने , तो उसे अपने पुत्रों का ध्यान हो आया | अब तो वह अत्यधिक विचलित हो कर सोचने लगा—

विद्वान कहते है कि इस संसार में उसी का जन्म लेना सफल होता है जो अपने सुकर्मों के द्वारा अपने वंश को उन्नति के मार्ग पर ले जाता है अन्यथा तो इस परिवर्तनशील संसार में लोग बार–बार जन्म लेकर मृत्यु का शिकार बनते ही रहते हैं |दूसरे; सौ मूर्ख पुत्रों से एक गुणी पुत्र श्रेष्ठ होता है क्योंकि वह अपने कुल का उद्धारक बनता है ; ठीक वैसे ही कि जैसे एक अकेला चन्द्रमा रात्रि के अन्धकार को दूर करता है जबकि यह काम आकाश में स्थित अनगिनत तारे भी नहीं कर पाते |

अब राजा सुदर्शन केवल इसी चिंता में घुलने लगा कि कैसे वह अपने पुत्रों को गुणवान् बनाये ?

वे माता-पिता जो अपने बच्चों को शिक्षा के सुअवसर उपलब्ध नहीं करवाते ,वे अपने ही बच्चों के शत्रु हुआ करते हैं क्योंकि बड़े होने पर ऐसे बच्चों को समाज में कोई भी प्रतिष्ठा नहीं मिलती जैसे हंसों की सभा में बगुलों को सम्मान कहाँ ? दूसरे, चाहे कोई व्यक्ति कितना भी रूपवान् क्यों न हो ,उसका कुल कितना भी ऊँचा क्यों न हो यदि वह ज्ञानशून्य है तो समाज में आदर का पात्र नहीं बन सकता जैसे कि बिना सुगंधी वाले टेसू के पुष्प देवालय की प्रतिमा का श्रृंगार नहीं बन सकते |

चिंतित एवं दुःखी मन होने के बावजूद भी राजा ने एक दृढ निश्चय कर ही लिया कि अब भाग्य के सहारे बैठना ठीक न होगा ,बस केवल पुरुषार्थ ही करना होगा |उसने बिना समय गंवाए पंडितों की एक सभा बुलवाई और उस सभा में आये पंडितों को अत्यंत सम्मानपूर्वक सम्बोधित करते हुए कहा—“क्या आप में से कोई ऐसा धैर्यशाली विद्वान है जो मेरे कुमार्गगामी एवं शास्त्र से विमुख पुत्रों को नीतिशास्त्र के द्वारा सन्मार्ग पर ला कर, उनका जन्म सफल बना सके ?”

मित्रों, विद्वानों की उस सभा में से विष्णु शर्मा नाम का एक महापंडित जो समस्त नीतिशास्त्र का तत्वज्ञ था, गुरु बृहस्पति की भांति उठ खड़ा हुआ और कहने लगा–“ राजन् !आपके ये राजपुत्र आपके महान् कुल में जन्मे हैं |मैं मात्र छह महीनों में इन्हें नीतिशास्त्र पढ़ा कर, इनका जीवन बदल सकता हूँ |” यह सुनकर अत्यधिक प्रसन्न हुआ राजा बोला –“एक कीड़ा भी जब पुष्पों के साथ सज्जनों के मस्तक की शोभा बन सकता है और महान् व्यक्तियों के द्वारा प्रतिष्ठित एक पत्थर भी ईश्वर की प्रतिमा का स्वरूप ले सकता है, तो निःसंदेह आप भी यह कठिन कार्य अवश्य कर सकते हैं |”

अब राजा सुदर्शन ने बड़े सम्मान के साथ अपने पुत्रों को शिक्षा-प्राप्ति के लिए पंडित विष्णु शर्मा को सौंप दिया और उस विद्वान ने भी राजा के उन शास्त्रविमुख पुत्रों को मात्र छह महीनों में ; पशु-पक्षियों एवं जीव-जन्तुओं की मनोरंजक तथा प्रेरणादायक कहानियों के माध्यम से नीतिशास्त्र का ज्ञान करवाया जिससे उनका जीवन ही बदल गया |

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