मानो गुरू की सीख

नारायण दास एक कुशल मूर्तिकार थे। उनकी बनाई मूर्तियां दूर दूर तक मशहूर थीं। नारायण दास को बस एक ही दुख था कि उनके कोई संतान नहीं थी। उन्हें हमेशा चिंता रहती थी कि उनके मरने के बाद उनकी कला की विरासत कौन संभालेगा। एक दिन उनके दरवाजे पर चौदह साल का एक बालक आया। उस समय नारायण दास खाना खा रहे थे। लड़के की ललचाई आंखों से वे समझ गए कि बेचारा भूखा है।

उन्होंने उसे भरपेट भोजन कराया। फिर उसका परिचय पूछा। लड़के ने कहा कि गांव में हैजा फैलने से उसके माता पिता और छोटी बहन मर गई। वह अनाथ है। नारायण दास को उस पर दया आ गई। उन्होंने उसे अपने पास रख लिया। लड़के का नाम था कलाधर। वह मन लगाकार उनकी सेवा करता। काम से छुटृी पाते ही उनके पैर दबाता।

नारायण दास द्वारा बनाई जा रही मूर्तियों को ध्यान से देखता। कई बार वह बाहर से पत्थर ले आता और उस पर छैनी हथौड़ी चलाता। एक दिन नारायण दास ने उसे ऐसा करते देखा तो समझ गए कि बच्चे में लगन है। उनकी चिंता का समाधान हो गया। उन्होंने तय कर लिया कि वे अपनी कला इस बालक को दे जाएंगे। उन्होंने तय कर लिया कि वे अपनी कला इस बालक को दे जाएंगे। उन्होंने कलाधर से कहा, ”बेटा, क्या तू मूर्ति बनाना सीखना चाहता है? मैं तुझे सिखाऊंगा।“

खुशी से कलाधर का कंठ भर आया। वह कुछ नहीं बोल पाया, बस सिर्फ उनकी ओर देखता रह गया।

नारायण दास ने बड़े मनोयोग से कलाधर को मूर्तिकला सिखाई। धीरे धीरे वह दिन भी आया जब कलाधर भी मूर्तियों गढ़ने में माहिर हो गया।

समय किसी कलाकार को अमर होने का वरदान नहीं देता। नारायण दास बहुत बीमार पड़ गया। कलाधर ने जी जान से गुरू की सेवा की पर उनकी बीमारी बढ़ती ही गई। एक दिन उनका बुखार तेज हो गया। कलाधर उनके माथे पर गीली पटृी दे रहा था। गुरू के मुख से कुछ अस्पष्ट स्वर फूट रहे थे, रह रहकर ”बेटा कला धर कला की ऊंचाई का अंत नहीं है। कारीगरी में दोष निकाले जाने का बुरा नहीं मानना कला पर अभिमान मत करना।“ अंतिम शब्द कहते कहते उनके प्राण छूट गए।

कलाधर अपने माता पिता की मृत्यु पर उतना नहीं रोया था, जितना गुरू की मृत्यु पर। धीरे धीरे वह पुराने जीवन में लौट आया। मूर्तियां गढ़नी शुरू कर दीं।

एक दिन उसके यहां एक साधु महाराज पधारे। साधु ने कलाधर से भगवान कृष्ण के बाल रूप की एक सुंदर मूर्ति बनाने को कहा। मूर्तिकार ने उनसे एक महीने बाद आने को कहा। साधु को इतना लंबा समय लेने के लिए आश्चर्य हो हुआ मगर वे चुप रहे। एक महीने बाद जब से आए तो वे भगवान कृष्ण की मूर्ति को देखकर दंग रह गए। माखन चुराते कृष्ण साधु के मुख से निकला, ”वाह, क्या खूब! बोलो कलाकार, तुम्हें क्या पारिश्रमिक चाहिए?“

कलाधर बोला, ”साधु से पारिश्रमिक! घोर पाप! महाराज, केवल आर्शीवाद दीजिए।“

”बेटा मेरा आर्शीवाद है कि तू देवलोक के लोगों की वाणी समझ सकेगा।“ और फिर साधु महाराज चले गए।

एक दिन कलाधर अपनी कार्यशाला में मूर्ति गढ़ने में तल्लीन था कि उसे दो व्यक्तियों की आपसी बातचीत की आवाज सुनाई दी। साधु के आर्शीवाद से वह उनकी बातचीत समझ सकता था।

”बेचारा मूर्तिकार! पंच दिन का मेहमान और है। छठे दिन तो इसके प्राण लेने आना ही पड़ेगा। हमारा काम भी कितना क्रूर है।“

मूर्तिकार समझ गया कि ये यमदूत हैं। अब मौत का डर सबको होता ही है, सो उसे भी हुआ। वह मृत्यु से बचने को उपाय सोचने लगा। उसने हू बहू अपने जैसी पांच मूर्तियां बनाईं। छठे दिन वह उन मूर्तियों के बीच सांस रोकर स्थिर बैठ गया। यमदूत आए। वे बुरी तरह भ्रम में पड़ गए, ‘इनमें कौन असली मूर्तिकार है।’ वे उसे पहचान नहीं पाए। खाली हाथ लौट आए।

यमदूतों को खाली हाथ लौटते देख यमराज के क्रोध की सीमा न रही। वे गरजे।

”आज तक मेरा कोई भी दूत बिना प्राण लिए नहीं लौटा। तुम कैसे, वापस आ गए, जाओ, जैसे भी हो उस मूर्तिकार के प्राण लेकर आओ।“

यमदूत वापस कार्यशाला में पहुंचे। अब भी वे उसे पहचान नहीं पाए। अचानक एक दूत को एक युक्ति सूझी उसने अपने साथी से कहा, ”वाह क्या मूर्ति बनाई है, फिर भी मूर्तिकार है बेवकूफ। इस मूर्ति की एक आंख बड़ी, दूसरी छोटी बनाई है। दूसरी मूर्ति के अंगूठा ही नहीं है।“

मूर्तिकार से अपनी कला में दोष सहन नहीं हुआ। वह गुरू की अंतिम सीख भी भूल गया। चिल्ला पड़ा, ”झूठ! दोनों आंखें बराबर“ उसकी आवाज डूबती गई। गर्दन एक ओर लुढ़क गई। यमदूत उसके प्राण लेकर जा चुके थे।

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