स्वभाव नहीं बदला जा सकता

किसी वन में एक सिंह अपनी पत्नी के साथ रहा करता था। एक बार सिंही ने दो पुत्रों को जन्म दिया। सिंह वन में जाकर भांति-भांति के पशुओं को मारकर अपनी पत्नी के लिए लाया करता था। किन्तु एक दिन की बात है कि दिन भर घूमने पर भी सिंह को कोई शिकार हाथ नहीं लगा।

इसी निराशा में वह घर वापस आ रहा था कि मार्ग में उसको एक सियार का बच्चा मिल गया। सिंह ने उसे उठाया और जीवित अवस्था में ही घर लाकर उसको अपनी पत्नी को सौंप दिया। सिंही ने पूछा, “आज भोजन के लिए कुछ नहीं मिला?”

“नहीं, इसके अतिरिक्त कुछ मिला ही नहीं। इसको भी शिशु समझकर मैंने मारा नहीं। क्योंकि कहा गया है कि प्राण पर संकट आने पर भी बालक की हत्या नहीं करनी चाहिए। अब तुम तो भूखी हो इस समय इसका ही आहार कर लो।”

शेरनी बोली, “जब बालक समझकर तुमने नहीं मारा तो मां होकर अपने पेट के लिए मैं इसकी हत्या क्यों करूं? प्राण जाने पर भी मनुष्य को किसी प्रकार का अकृत्य नहीं करना चाहिए। आज से यह मेरा तृतीय पुत्र है।”

उस दिन से उस सिंही ने उस सियार के शिशु को भी अपने शिशुओं की ही भांति अपना दूध पिलाना आरम्भ कर दिया। इस प्रकार वह सियार शिशु सिंह-शिशुओं के साथ आहार-विहार करता हुआ आनन्द से दिन बिताने लगा। कुछ दिनों बाद एक जंगली हाथी उस वन में भटकता हुआ आ निकला।

उसको देखकर सिंह के दोनों शिशु उस पर क्रुद्ध होकर उसकी और दौड़ पड़े। उनको जाते देखकर उस सियार ने अपने सिंह भाइयों से कहा, “यह तो हाथी है! हाथी सिंह-कुल का स्वाभाविक शत्रु होता है, उसकी ओर नहीं जाना चाहिए।”

यह कहकर वह घर की ओर भाग गया। उसको भागता देखकर सिंह-शिशु भी निरुत्साहित होकर घर को लौट आए। किसी ने ठीक ही कहा है कि यदि युद्धभूमि से एक भी कायर भागने लगता है तो शेष सेना का भी उत्साह क्षीण हो जाता है।

घर पहुंचकर दोनों सिंह-शिशुओं ने सियार के हाथी को देखकर भाग आने की बात का उपहास किया। इससे सियार के बच्चे को क्रोध आ गया और उसने क्रोध में उनको भला-बुरा कहा। उसे क्रोधित देख, एकान्त में जाकर सिंही ने कहा, “बेटे! वे दोनों तुम्हारे छोटे भाई हैं। तुम्हें ऐसा नहीं कहना चाहिए।” सियार का क्रोध शान्त नहीं हुआ। वह कहने लगा, “मैं क्या इनसे कम हूं। मैं इनको अपमान का मजा चखाऊंगा।”

सिंही बोली, “हां बेटे! तुम कहते तो ठीक हो। तुम वीर हो, तुम विद्वान हो और तुम दर्शनीय भी हो। किन्तु जिस कुल में तुम उत्पन्न हुए हो उस कुल में हाथी का शिकार नहीं किया जाता।” “अब तुमने क्रोध कर ही लिया है तो मैं तुम्हें बताती हूं। तुम सियार हो, मैंने तुम्हें अपना दूध पिलाकर पालन-पोषण” किया है।

मेरे ये दोनों शिशु जब तक यह नहीं जानते कि तुम सिंह नहीं सियार हो, तब तक ही तुम्हारी कुशल है। इसलिए अच्छा यही है कि तुम अभी चुपचाप यहां से खिसक जाओ, अन्यथा यदि किसी दिन इनको पता लग गया तो ये तुमको मारे बिना नहीं छोड़ेंगे।”

सिंही की बात सुनकर सियार का बच्चा भय से कांप उठा। वह चुपचाप वहां से खिसककर, किसी प्रकार अपनी जान बचा अपने जातियों में जाकर मिल गया। इसलिए कहते हैं अपनी जात-बिरादरी के साथ ही रहना चाहिए, क्योंकि हम अपने स्वभाव नहीं बदल सकते।

शिक्षा – जन्म से मिले हुए गुण संगत बदलने पर नहीं बदल सकते।

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