रानी केतकी

एक नगर में एक राजा रहता था। वह अपनी पुत्री को बहुत प्यार करता था। उसकी एक बहुत सुशील एवं सुन्दर कन्या थी। उसका नाम केतकी था। वह अनेक गुणों से परिपूर्ण थी । किन्तु उसके भाग्य  में बहुत कष्ट लिखे थे। ऐसा पण्डितों का कहना था। इस दुःख के कारण उसकी माँ रानी बीमार रहने लगी। राजा के अनेक उपायों के करने के उपरान्त भी राजा के कोई पुत्र न हुआ और कोई अन्य सन्तान भी न था। अतः राजा रानी अपनी इस पुत्री से असीम प्यार करते थे। वह इनकी आँख का  तारा थी। किन्तु पंडितों के बताये ग्रह नक्षत्रों के कारण वे दोनों प्रायः व्याकुल रहते किन्तु पुत्री से कुछ न कहते। रानी तो सोच में डूबी-डूबी पुत्री के बारह वर्ष के होते होते संसार छोड़कर चल दी। अब पिता को हर क्षण पुत्री का ही ध्यान रहता। पिता ने यह सोचकर कि पुत्री को यदि पढ़ा लिखा योग्य बना दिया जाये तो जीवन में अत्यधिक सुखी रह सकती है, उसे उसकी सहेलियों के साथ पढने पाठशाला भेजना प्रारम्भ कर दिया।

कुछ दिन तक तो केतकी बड़ी प्रसन्नता के साथ पाठशाला जाती रही। कुशाग्र बुद्धि होने के कारण वह अपना पाठ तुरन्त याद कर लेती तथा सहपाठियों को भी पढ़ा देती जिसके कारण उसकी अध्यापिकायें उससे अत्यन्त प्यार करने लगीं। वह अन्य कलायें भी सीखने लगी जैसे चित्रकारी कढ़ाई आदि। किन्तु एक दो साल बाद ही यह सिलसिला टूट गया। वहाँ एक नयी अध्यापिका आ गई। जिसका व्यवहार केतकी के प्रति अच्छा न था। वह सदा उसे झिड़कती रहती। किसी भी कार्य पर प्रसन्न न होती। राजा केतकी की फीस सोने के सिक्के में देते थे। केतकी के अलावा और कन्याओं से कहती, ‘‘बैठो भाग्यवानों’’ तथा केतकी से कहती ‘‘दुर्भाग्यशाली विद्यार्थियों का पाठशाला में आना अच्छा नहीं।’ यह बात केतकी को अच्छी न लगती। एक बार अपने पिता से इस बात का कारण जानने के लिये  हठ कर बैठी। पिता ने बात टालने के लिये कुछ दिन वन में आखेट करने एवं ऋषियों मुनियों के दर्शन करने के लिये बेटी के साथ वन में जाने का निश्चय कर लिया। वह पूरी तैयारी के साथ कुछ विश्वस्त सैनिकों के साथ घोड़े पर सवार हो जंगल को चल दिये। काफी दूर जाने के बाद अचानक एक हिरन का पीछा करते करते पिता और पुत्री दोनों अपने सैनिकों को छोड़ दूर जंगल में धूप की गरमी से तपते हुए प्यास के कारण एक कुएं के पास आये।

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