थोड़ा ठहरने से विकारो का समाधान

महात्मा बुद्ध एक बार अपने प्रिय शिष्य आनंद के साथ कही जा रहे थे । गर्मी का महीना था । वन में काफी चलने के बाद दोपहर में वे एक व्रक्ष तले विश्राम करने के लिए रुके । उन्हें काफी जोर की प्यास लगी थी । आनंद पास स्थित पहाड़ी झरने पर पानी लेने गया , लेकिन झरने से अभी -अभी कुछ पशु उधम मचा कर निकले थे , जिससे झील का पानी काफी गन्दा हो
गया था । पशुओ की भाग – दौड़ से झरने के पानी में कीचड़ ही कीचड़ था । और सड़े पत्ते बाहर उभर कर आ गए थे । गन्दा पानी देखकर आनंद बिना पानी लिए लौट आया ।
उसने बुद्ध से कहा कि झरने का पानी निर्मल नहीं है । उसे पिया नहीं जा सकता । मै पीछे लौटकर नदी से पानी ले आता हूं । लेकिन नदी बहुत दूर थी , तो बुद्ध ने उसे झरने का पानी ही लाने को वापिस लौटा दिया । आनंद थोड़ी देर में फिर खाली लौट आया । पानी अब भी गन्दा था , इसीलिए उसने पानी नहीं लिया था । लेकिन महात्मा बुद्ध ने उसे इस बार भी वापिस लौटा दिया । कुछ देर बाद जब तीसरी बार आनंद झरने पर पानी लेने के लिए पंहुचा , तो देखकर चकित हो गया कि झरना अब बिल्कुल निर्मल और शांत हो गया था ,कीचड़ नीचे बैठ गया था । और पानी अब बिल्कुल निर्मल साफ हो गया था । वह इस बार पानी लेकर लौटा ।
महात्मा बुद्ध ने उसे समझाते हुए कहा कि यही स्थिति हमारे मन की भी है । जीवन की दौड़-भाग मन को भी विछुबद्ध कर देती है , मथ देती है । लेकिन कोई यदि शांति और धीरज से बैठकर उसे देखता रहे , तो मन की बिछुब्धता कीचड़ के समान अपने -आप नीचे बैठ जाती है और सहज निर्मलता का आगमन हो जाता है । इसीलिए बुरे समय में आदमी को अपना धीरज नही खोना चाहिए ।

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