संगति का फल

बहुत समय पहले की बात है एक राजा अपने राज्य को छोड़कर किसी अन्य राज्य में घूमना चाहता था। इस लिए वह एक दिन पैदल अकेले ही अपने राज्य से चुपचाप निकल पड़ा। और पड़ोसी राज्य में जा पंहुचा राजा ने एक साधारण आदमी का वेश बना रखा था। चलते चलते वह इतना थक गया की उसने एक घने पेड़ के निचे चादर ओढ़कर लेटगया आराम करने लगा। राजा को कब नींद आगयी उसे पता ही नही चला।

तभी एक कौवा राजा के ठीक ऊपर वाली डाल पर आ बैठा। और उसने राजा के चादर पर बीट कर दी।
और वहां से उड़ गया। थोड़ी देर बाद एक हंस ठीक उसी जगह पर आ बैठा जहां पर कौवा बैठा था।
थोड़ी देर बाद जब राजा नीद से जागा तो उसने कोवे द्वारा की गयी बीट अपनी चादर पर देख बहुत क्रोधित हुआ। जब उसने नज़र उठा कर ऊपर पेड़ पर देखा तो उसे लगा की उसका चादर इस हंस ने ही ख़राब की है राजा स्वभाव से बड़ा ही क्रोध करने वाला था। उसने पास में ही रखा अपना धनुष बाड़ उठाया और उस हंस को मार गिराया।
हंस तड़पता हुआ धरती पर गिर पड़ा और तड़पने लगा। वह तड़पते हुए राजा से कहने लगा-

‘अहं काको हतो राजन्!
हंसाऽहंनिर्मला जल:।
दुष्ट स्थान प्रभावेन,
जातो जन्म निरर्थक।।’

अर्थात हे राजन्! मैंने ऐसा कौन सा अपराध किया, तुमने मुझे अपने तीखे बाणों का निशाना बनाया है? मैं तो निर्मल जल में रहने वाला प्राणी हूँ? ईश्वर की कैसी लीला है। सिर्फ एक बार कौए जैसे दुष्ट प्राणी की जगह पर बैठने मात्र से ही व्यर्थ में मेरे प्राण चले जा रहे हैं, फिर दुष्टों के साथ सदा रहने वालों का क्या हाल होता होगा?

हंस ने प्राण छोड़ने से पूर्व कहा – ‘हे राजन्! दुष्टों की संगति नहीं करना। क्योंकि उनकी संगति का फल भी ऐसा ही होता है।’ राजा को अपने किए अपराध का बोध हो गया। वह अब पश्चाताप करने लगा।

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