यह उस समय की बात है जब शिछा मठो में दी जाती थी, एक प्रसिद्द गुरु अपने मठ में शिक्षा दिया करते थे। पर यहाँ शिक्षा देना का तरीका कुछ अलग था , गुरु का मानना था कि सच्चा ज्ञान मौन रह कर ही आ सकता है; और इसीलिए मठ में मौन रहने का नियम था । लेकिन इस नियम का भी एक अपवाद था , सात साल पूरा होने पर कोई शिष्य गुरु से दो शब्द बोल सकता था।
पहला दस साल बिताने के बाद एक शिष्य गुरु के पास पहुंचा , गुरु जानते थे की आज उसके सात साल पूरे हो गए हैं ; उन्होंने शिष्य को दो उँगलियाँ दिखाकर अपने दो शब्द बोलने का इशारा किया।
शिष्य बोला , ” भोजन बेस्वाद “
गुरु ने ‘हाँ’ में सर हिला दिया।
इसी तरह सात साल और बीत गए और एक बार फिर वो शिष्य गुरु के समक्ष अपने दो शब्द कहने पहुंचा।
” बिस्तर कठोर ” , शिष्य बोला।
गुरु ने एक बार फिर ‘हाँ’ में सर हिला दिया।
करते-करते सात और साल बीत गए और इस बार वो शिष्य गुरु के समक्ष अपने दो शब्द कहने पहुंचा।
और बोला , “नहीं होगा” वह इस बार गुरु से मठ छोड़ कर जाने की आज्ञा लेने के लिए उपस्थित हुआ था।
“जानता था” , गुरु बोले,
और उसे जाने की आज्ञा दे दी और मन ही मन सोचा जो बोलने का थोड़ा सा मौका मिलने पर भी शिकायत करता है वो ज्ञान कहाँ से प्राप्त कर सकता है।
दोस्तों, बहुत से लोग अपनी जिंदगी शिकायत करने में ही बीता देते हैं, और उस शिष्य की तरह अपने लक्ष्य से चूक जाते हैं। शिष्य ने पहले दस साल सिर्फ ये बताने के लिए इंतज़ार लिया कि खाना गन्दा है; यदि वो चाहता तो इस समय में वो खुद खाना बनाना सीख कर अपने और बाकी लोगों के लिए अच्छा खाना बना सकता था , चीजों को बदल सकता था… हमें यही करना चाहिए; हमें शिाकयात करने की जगह चीजों को सही करने की दिशा में काम करना चाहिए। और शिकायत करने की जगह , “हमें खुद वो बदलाव बनना चाहिए जो हम दुनिया में देखना चाहते हैं।
Share with us :