समुद्र-मन्थन की कथा

एक दिन बलि की सभा में बैठे हुए नीति-निपुण देवराज इन्द्र ने बलि को सम्बोधित करके हँसते हुए कहा- ‘वीरवर ! हमारे हाथी-घोड़े आदि नाना प्रकार के बहुत से रत्न तो इस समय तुम्हें प्राप्त होने योग्य है, तत्काल ही समुद्र में गिर पड़े हैं। अत: हम लोगों को समुद्र से उन रत्नों का उद्धार करने के लिये बहुत शीघ्र प्रयत्न करना चाहिये। तुम्हारे कार्य की सिद्धि के लिये समुद्र का मन्थन करना उचित है।’ इन्द्र के इस प्रकार प्रेरणा देने पर बलि ने शीघ्रतापूर्वक पूछा- ‘यह समुद्र-मन्थन किस उपाय से सम्भव होगा?’

इसी समय मेघ के समान गम्भीर स्वर में आकाशवाणी हुई- ‘देवताओ और दैत्यो! तुम क्षीर समुद्र का मन्थन करो। इस कार्य में तुम्हारे बल की वृद्धि होगी, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। मन्दराचल को मथानी और वासुकि नाग को रस्सी बनाओं, फिर देवता और दैत्य मिलकर मन्थन आरम्भ करो।’ यह आकाशवाणी सुनकर सहस्त्रों दैत्य और देवता समुद्र-मन्थन के लिये उद्यत हो सुवर्ण के सदृश कान्तिमान् मन्दराचल के समीप गये। वह पर्वत सीधा, गोलाकार, बहुत मोटा और अत्यन्त प्रकाशमान था। अनेक प्रकार के रत्न उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। चन्दन, पारिजात, नागकेशर, जायफल और चम्पा आदि भाँति-भाँति के वृक्षों से वह हरा-भरा दिखायी देता था।

उस महान पर्वत को देखकर सम्पूर्ण देवताओं ने हाथ जोड़कर कहा- ‘दूसरों का उपकार करनेवाले महाशैल मन्दराचल ! हम सब देवता तुमसे कुछ निवेदन करने के लिये यहाँ आये हैं, उसे तुम सुनो।’ उनके यों कहने पर मन्दराचल ने देहधारी पुरुष के रूप में प्रकट होकर कहा- ‘देवगण! आप सब लोग मेरे पास किस कार्य से आये हैं, उसे बताइये।’ तब इन्द्र ने मधुर वाणी में कहा- ‘मन्दराचल! तुम हमारे साथ रहकर एक कार्य में सहायक बनो; हम समुद्र को मथकर उससे अमृत निकालना चाहते हैं, इस कार्य के लिये तुम मथानी बन जाओ।’ मन्दराचल ने ‘बहुत अच्छा’ कहकर उनकी आज्ञा स्वीकार की और देवकार्य की सिद्धि के लिये देवताओं, दैत्यों तथा विशेषत: इन्द्र से कहा- ‘पुण्यात्मा देवराज! आपने अपने वज्र से मेरे दोनों पंख काट डाले हैं, फिर आप लोगों के कार्य की सिद्धि के लिये वहाँ तक मैं चल कैसे सकता हूँ?’ तब सम्पूर्ण देवताओं और दैत्यों ने उस अनुपम पर्वत को क्षीर समुद्र तक ले जाने की इच्छा से उखाड़ लिया; परंतु वे उसे धारण करने में समर्थ न हो सके। इस प्रकार उनका उद्यम और उत्साह भंग हो गया। वे देवता और दानव सचेत होने पर जगदीश्र्वर भगवान विष्णु की स्तुति करने लगे- ‘शरणागतवत्सल महाविष्णो! हमारी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये। आपने ही इस सम्पूर्ण चराचर जगत् को व्याप्त कर रखा है।’

उस समय देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिये गरुड़ की पीठ पर बैठे हुए भगवान विष्णु सहसा वहाँ प्रकट हो गये। वे सबको अभय देने वाले हैं। उन्होंने देवताओं और दैत्यों की ओर दृष्टिपात करके खेल-खेल में ही उस महान पर्वत को उठाकर गरुड़ की पीठ पर रख लिया। फिर वे देवताओं और दैत्यों को क्षीर-समुद्र के उत्तर-तट पर ले गये और पर्वतश्रेष्ठ मन्दराचल को समुद्र में डालकर तुरंत वहाँ से चल दिये। तदनन्तर सब देवता दैत्यों को साथ लेकर वासुकि नाग के समीप गये और उनसे भी अपनी प्रार्थना स्वीकार करायी। इस प्रकार मन्दराचल को मथानी और वासुकि-नाग को रस्सी बनाकर देवताओं और दैत्यों ने क्षीर-समुद्र का मन्थन आरम्भ किया। इतने में ही वह पर्वत समुद्र में डूबकर रसातल को जा पहुँचा। तब लक्ष्मीपति भगवान् विष्णु ने कच्छपरूप धारण करके तत्काल ही मन्दराचल को ऊपर उठा दिया। उस समय यह एक अद्भुत घटना हुई। फिर जब देवता और दैत्यों ने मथानी को घुमाना आरम्भ किया, तब वह पर्वत बिना गुरु के ज्ञान की भाँति कोई सुदृढ़ आधार न होने के कारण इधर-उधर डोलने लगा। यह देख परमात्मा भगवान् विष्णु स्वयं ही मन्दराचल के आधार बन गये और उन्होंने अपनी चारों भुजाओं से मथानी बने हुए उस पर्वत को भली-भाँति पकड़कर उसे सुखपूर्वक घुमाने योग्य बना दिया। तब अत्यन्त बलवान् देवता और दैत्य एकीभूत हो अधिक जोर लगाकर क्षीर-समुद्र का मन्थन करने लगे।

कच्छप रूपधारी भगवान की पीठ जन्म से ही कठोर थी और उस पर घूमने वाला पर्वतश्रेष्ठ मन्दराचल भी वज्रसार की भाँति दृढ़ था। उन दोनों की रगड़ से समुद्र में बड़वानल प्रकट हो गया। साथ ही हालाहल विष उत्पन्न हुआ। उस विष को सबसे पहले नारद जी ने देखा। तब अमित तेजस्वी देवर्षि ने देवताओं को पुकार कर कहा- ‘अदिति कुमारो! अब तुम समुद्र का मन्थन न करो। इस समय सम्पूर्ण उपद्रवों का नाश करने वाले भगवान शिव की प्रार्थना करो। वे परात्पर हैं, परमानन्दस्वरूप हैं तथा योगी पुरुष भी उन्हीं का ध्यान करते हैं।’ देवता अपने स्वार्थसाधन में संलग्न हो समुद्र मंथन रहे थे। वे अपनी ही अभिलाषा में तन्मय होने के कारण नारद जी की बात नहीं सुन सके। केवल उद्यम का भरोसा करके वे क्षीर-सागर के मन्थन में संलग्न थे। अधिक मन्थन से जो हालाहल विष प्रकट हुआ, वह तीनों लोकों को भस्म कर देनेवाला था। वह प्रौढ़ विष देवताओं का प्राण लेने के लिये उनके समीप आ पहुँ चा और ऊपर–नीचे तथा सम्पूर्ण दिशाओं में फैल गया। समस्त प्राणियों को अपना ग्रास बनाने के लिये प्रकट हुए उस कालकूट विष को देखकर वे सब देवता और दैत्य हाथ में पकड़े हुए नागराज वासुकि को मन्दराचल पर्वतसहित वहीं छोड़ भाग खड़े हुए। उस समय उस लोकसंहारकारी कालकूट विष को भगवान शिव ने स्वयं अपना ग्रास बना लिया। उन्होंने उस विष को निर्मल (निर्दोष) कर दिया। इस प्रकार भगवान शंकर की बड़ी भारी कृपा होने से देवता, असुर, मनुष्य तथा सम्पूर्ण त्रिलोकी की उस समय कालकूट विष से रक्षा हुई।

तदनन्तर भगवान विष्णु के समीप मन्दराचल को मथानी और वासुकि नाग को रस्सी बनाकर देवताओं ने पुन: समुद्र-मन्थन आरम्भ किया। तब समुद्र से देवकार्य की सिद्धि के लिये अमृतमयी कलाओं से परिपूर्ण चन्द्रदेव प्रकट हुए। सम्पूर्ण देवता, असुर और दानवों ने भगवान चंद्नमा को प्रणाम किया और गर्गाचार्य जी से अपने-अपने चन्द्रबल की यथार्थ रूप से जिज्ञासा की। उस समय गर्गाचार्य जी ने देवताओं से कहा- ‘इस समय तुम सब लोगों का बल ठीक है। तुम्हारे सभी उत्तम ग्रह केंन्द्र स्थान में (लग्न में, चतुर्थ स्थान में, सप्तम स्थान में और दशम स्थान में) हैं। चन्द्रमा से गुरु का योग हुआ है। बुध, सूर्य, शुक्र, शनि और मंगल भी चन्द्रमा से संयुक्त हुए हैं। इसलिये तुम्हारे कार्य की सिद्धि के निमित्त इस समय चन्द्रबल बहुत उत्तम है। यह गोमन्त नामक मुहूर्त है, जो विजय प्रदान करने वाला है।’ महात्मा गर्गजी के इस प्रकार आश्र्वासन देने पर महाबली देवता गर्जना करते हुए बड़े वेग से समुद्र-मन्थन करने लगे।

मथे जाते हुए समुद्र के चारों ओर बड़े जोर की आवाज उठ रही थी। इस बार के मन्थन से देवकार्यों की सिद्धि के लिये साक्षात् सुरभि कामधेनु प्रकट हुईं। उन्हें काले, श्वेत, पीले, हरे तथा लाल रंग की सैकड़ों गौएँ घेरे हुए थीं। उस समय ऋषियों ने बड़े हर्ष में भरकर देवताओं और दैत्यों से कामधेनु के लिये याचन की और कहा- ‘आप सब लोग मिलकर भिन्न-भिन्न गोत्रवाले ब्राह्मणों को कामधेनु सहित इन सम्पूर्ण गौओं का दान अवश्य करें।’ ऋषियों के याचना करने पर देवताओं और दैत्यों ने भगवान् शंकर की प्रसन्नता के लिये वे सब गौएँ दान कर दीं तथा यज्ञ कर्मों में भली-भाँति मन को लगाने वाले उन परम मंगलमय महात्मा ऋषियों ने उन गौओं का दान स्वीकार किया। तत्पश्चात सब लोग बड़े जोश में आकर क्षीरसागर को मथने लगे। तब समुद्र से कल्पवृक्ष, पारिजात दिव्य वृक्ष प्रकट हुए।

उन सबको एकत्र रखकर देवताओं ने पुन: बड़े वेग से समुद्र मन्थन आरम्भ किया। इस बार के मन्थन से रत्नों में सबसे उत्तम रत्न कौस्तुभ प्रकट हुआ, जो सूर्यमण्डल के समान परम कान्तिमान था। वह अपने प्रकाश से तीनों लोकों को प्रकाशित कर रहा था। देवताओं ने चिन्तामणि को आगे रखकर कौस्तुभ का दर्शन किया और उसे भगवान विष्णु की सेवा में भेंट कर दिया। तदनन्तर, चिन्तामणि को मध्य में रखकर देवताओं और दैत्यों ने पुन: समुद्र को मथना आरम्भ किया। वे सभी बल में बढ़े-चढ़े थे और बार-बार गर्जना कर रहे थे। अब की बार उसे मथे जाते हुए समुद्र से उच्चै:श्रवा नामक अश्र्व प्रकट हुआ। वह समस्त अश्र्वजाति में एक अद्भुत रत्न था। उसके बाद गज जाति में रत्न भूत ऐरावत प्रकट हुआ। उसके साथ श्वेतवर्ण के चौसठ हाथी और थे। ऐरावत के चार दाँत बाहर निकले हुए थे और मस्तक से मद की धारा बह रही थी। इन सबको भी मध्य में स्थापित करके वे सब पुन: समुद्र मथने लगे। उस समय उस समुद्र से मदिरा, भाँग, काकड़ासिंगी, लहसुन, गाजर, अत्यधिक उन्मादकारक धतूर तथा पुष्कर आदि बहुत-सी वस्तुएँ प्रकट हुईं। इन सबको भी समुद्र के किनारे एक स्थान पर रख दिया गया। तत्पश्चात वे श्रेष्ठ देवता और दानव पुन: पहले की ही भाँति समुद्र-मन्थन करने लगे। अब की बार समुद्र से सम्पूर्ण भुवनों की एकमात्र अधीश्वरी दिव्यरूपा देवी महालक्ष्मी प्रकट हुईं, कोई योगी पुरुष इन्हीं को ‘वैष्णवी’ कहते हैं। सदा उद्यम में लगे रहने वाले माया के अनुयायी इन्हीं को ‘माया’ के रूप में जानते हैं। जो अनेक प्रकार के सिद्धान्तों को जानने वाले तथा ज्ञानशक्ति से सम्पन्न हैं, वे इन्हीं को भगवान की ‘योगमाया’ कहते हैं। देवताओं ने देखा देवी महालक्ष्मी का रूप परम सुन्दर है। उनके मनोहर मुख पर स्वाभाविक प्रसन्नता विराजमान है। हार और नूपुरों से उनके श्रीअंगो की बड़ी शोभा हो रही है। मस्तक पर छत्र तना हुआ है, दोनों ओर से चँवर डुल रहे हैं; जैसे माता अपने पुत्रों की ओर स्नेह और दुलार भरी दृष्टि से देखती है, उसी प्रकार सती महालक्ष्मी ने देवता, दानव, सिद्ध, चारण और नाग आदि सम्पूर्ण प्राणियों की ओर दृष्टिपात किया। माता महालक्ष्मी की कृपा-दृष्टि पाकर सम्पूर्ण देवता उसी समय श्रीसम्पन्न हो गये। वे तत्काल राज्याधिकारी के शुभ लक्षणों से सम्पन्न दिखायी देने लगे।

तदनन्तर देवी लक्ष्मी ने भगवान मुकुन्द की ओर देखा। उनके श्रीअंग तमाल के समान श्यामवर्ण थे। कपोल और नासिका बड़ी सुन्दर थी। वे परम मनोहर दिव्य शरीर से प्रकाशित हो रहे थे। उनके वक्ष:स्थल में श्रीवत्स का चिह्न सुशोभित था। भगवान एक हाथ में कौमोद की गदा शोभा पा रही थी। भगवान् नारायण की उस दिव्य शोभा को देखते ही लक्ष्मी जी आश्चर्यचकित हो उठीं और हाथ में वनमाला ले सहसा हाथी से उतर पड़ीं। वह माला श्रीजी ने अपने ही हाथों बनायी थीं, उसके ऊपर भ्रमर मंडरा रहे थे। देवी ने वह सुन्दर वनमाला परमपुरुष भगवान विष्णु के कण्ठ में पहना दी और स्वयं उनके वाम भाग में जाकर खड़ी हो गयीं। उस शोभाशाली दम्पति का वहाँ दर्शन करके सम्पूर्ण देवता, दैत्य, सिद्ध, अप्सराएँ, किन्नर तथा चारणगण परम आनन्द को प्राप्त हुए।

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