शिष्य के ऐसे विचार

गांव से बहुत दूर एक जंगल में एक गुरुजी रहते थे। वहां उनका एक बड़ा आश्रम था, जहां रहकर अनेक शिष्य विध्याध्यन करते थे। गुरुजी की वाणी से सभी वेद, शास्त्रों का श्रवण कर ग्रहण भी करते थे। आश्रम में कई दुधारू गायें थीं।

जब अध्ययन की अवधि समाप्त हो गई तो गुरुजी ने एक दिन सबको अपने सामने एकसाथ बैठाकर दीक्षा व आशीर्वाद देते हुए कहा- तुम सब मेरे प्रिय और आत्मीय हो। मैं चाहता हूं कि मेरी ओर से भेंटस्वरूप एक-एक गाय अपने-अपने घर ले जाओ। शिष्य के रूप में तुमने जो सेवाभाव दिखाया है, उससे मैं बहुत प्रसन्न हूं।

यह ‍सुनकर शिष्य गदगद हो गए। वे शीघ्र ही अपनी पसंद की गाय चुन-चुनकर रस्सी हाथ में थामे हुए जब वहां से प्रस्थान करने को उत्सुक हुए तो गुरुजी की दृष्टि एक भोले-भाले शिष्य पर पड़ी, जो यह सब चुपचाप देख रहा था।

उसको पास बुलाकर गुरुजी ने पूछा- बेटा! तुम क्यों शांत खड़े हो? क्या तुम्हें गाय नहीं चाहिए?

नहीं गुरुजी, वह हाथ जोड़कर विनयपूर्वक बोला- मुझे यहां की कोई गाय नहीं चाहिए। मुझे केवल आशीर्वाद चाहिए, जो आपने देकर मुझ पर बड़ा उपकार किया है।

शिष्य के ऐसे विचार सुनते ही गुरुजी भाव-विभोर हो गए। उन्होंने इस शिष्य के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा- अब आश्रम की शेष सारी गायें मैं तुम्हें प्रदान करता हूं।

मैं आप जैसे गुरु और आश्रम को छोड़कर कहीं भी नहीं जाऊंगा, में सदेव यहीं आपकी सेवा करूंगा।

ऐसा कहकर शिष्य ने ज्यों ही अपना मस्तक गुरुजी के चरणों में रखना चाहा, उन्होंने दोनों हाथो से बढ़ कर शिष्य को अपनी छाती से लगा लिया। उस समय सभी शिष्य एक-दूसरे का मुंह देख रहे थे।

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