त्रिशंकु के मन में सशरीर स्वर्ग-प्राप्ति के लिए यज्ञ करने की कामना बलवती हुई तो वे वसिष्ठ के पास पहुचे। वसिष्ठ ने यह कार्य असंभव बतलाया। वे दक्षिण प्रदेश में वसिष्ठ के सौ तपस्वी पुत्रों के पास गये। उन्होंने कहा-‘जब वसिष्ठ ने मना कर दिया है तो हमारे लिए कैसे संभव हो सकता है?’ त्रिशंकु के यह कहने पर कि वे किसी और की शरण में जायेंगे, उनके गुरु-पुत्रों ने उन्हें चांडाल होने का शाप दिया। चांडाल रूप में वे विश्वामित्र की शरण में गये। विश्वामित्र ने उसके लिए यज्ञ करना स्वीकार कर लिया। यज्ञ में समस्त ऋषियों को आमन्त्रित किया गया। सब आने के लिए तैयार थे, किंतु वसिष्ठ के सौ पुत्र और महोदय नामक ऋषि ने कहला भेजा कि वे लोग नहीं आयेंगे क्योंकि जिस चांडाल का यज्ञ कराने वाले क्षत्रिय हैं, उस यज्ञ में देवता और ऋषि किस प्रकार हवि ग्रहण कर सकते हैं। विश्वामित्र ने क्रुद्ध होकर शाप दिया कि वे सब काल-पाश में बंधकर यमपुरी चले जायें तथा वहां सात सौ जन्मों तक मुर्दों का भक्षण करें। यज्ञ आरंभ हो गये। बहुत समय बाद देवताओं को आमन्त्रित किया गया पर जब वे नहीं आये तो क्रुद्ध होकर विश्वामित्र ने अपने हाथ में सुवा लेकर कहा-‘मैं अपने अर्जित तप के बल से तुम्हें (त्रिशंकु को) सशरीर स्वर्ग भेजता हूं।’ त्रिशंकु स्वर्ग की ओर सशरीर जाने लगे तो इन्द्र ने कहा-‘तू लौट जा, क्योंकि गुरु से शापित है। तू सिर नीचा करके यहाँ से गिर जा।’ वह नीचे गिरने लगा तो विश्वामित्र से रक्षा की याचना कीं। उन्होंने कहा-‘वहीं ठहरो,’ तथा क्रुद्ध होकर इन्द्र का नाश करने अथवा स्वयं दूसरा इन्द्र बनने का निश्चय किया। उन्होंने अनेक नक्षत्रों तथा देवताओं की रचना कर डाली। देवता, ऋषि, असुर विनीत भाव से विश्वामित्र के पास गये। अंत में यह निश्चय हुआ कि जब तक सृष्टि रहेगी, ध्रुव, सूर्य, पृथ्वी, नक्षत्र रहेंगे, तब तक विश्वामित्र का रचा नक्षत्रमंडल और स्वर्ग भी रहेंगे उस स्वर्ग में त्रिशंकु सशरीर, नतमस्तक विद्यमान रहेंगे।
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