बालि सुग्रीव का बड़ा भाई था। वह पिता और भाई का अत्यधिक प्रिय था। पिता की मृत्यु के बाद बालि ने राज्य सम्हाला। स्त्री के कारण से उसका दुंदुभी के पुत्र मायावी से बैर हो गया। एक बार अर्धरात्रि में किष्किंधा के द्वार पर आकर मायावी ने युद्ध के लिए ललकारा। बालि तथा सुग्रीव उससे लड़ने के लिए गये। दोनों को आता देखकर वह वन की ओर भागा तथा एक बिल में छिप गया। बालि सुग्रीव को बिल के पास खड़ा करके स्वयं बिल में घुस गया। सुग्रीव ने एक वर्ष तक प्रतीक्षा की, तदुपरांत बिल से आती हुई लहू की धारा देखकर वह भाई को मरा जानकर बिल को पर्वत शिखर से ढककर अपने नगर में लौट आया। मन्त्रियों के आग्रह पर उसने राज्य संभाल लिया। उधर बालि ने मायावी को एक वर्ष में ढूंढ़ निकाला। कुटुंब सहित उसे मारकर जब वह लौटा तो बिल पर रखे पर्वत-शिखर को देखकर उसने सुग्रीव को आवाज दी किंतु कोई उत्तर नहीं मिला। जैसे-तैसे शिखर हटाकर जब वह अपनी नगरी में पहुंचा तो सुग्रीव को राज्य करते देखा। उसे निश्चय हो गया कि वह राज्य के लोभ से बालि को बिल में बंद कर आया था, अत: उसने सुग्रीव को निर्वासित कर दिया तथा उसकी पत्नी रूमा को अपने पास रख लिया।
पृथ्वी तल के समस्त वीर योद्धाओं को परास्त करता हुआ रावण बालि से युद्ध करने के लिए गया। उस समय बालि सन्ध्या के लिए गया हुआ था। वह प्रतिदिन समस्त समुद्रों के तट पर जाकर सन्ध्या करता था। बालि के मन्त्री तार के बहुत समझाने पर भी रावण बालि से युद्ध करने की इच्छा से ग्रस्त रहा। वह सन्ध्या में लीन बालि के पास जाकर अपने पुष्पक विमान से उतरा तथा पीछे से जाकर उसको पकड़ने की इच्छा से धीरे-धीरे आगे बढ़ा। बालि ने उसे देख लिया था किंतु उसने ऐसा नहीं जताया तथा सन्ध्या करता रहा। रावण की पदचाप से जब उसने जान लिया कि वह निकट है तो तुरंत उसने रावण को पकड़कर बगल में दबा लिया और आकाश में उड़ने लगा। बारी-बारी में उसने सब समुद्रों के किनारे सन्ध्या की। राक्षसों ने भी उसका पीछा किया। रावण ने स्थान-स्थान पर नोचा और काटा किंतु बालि ने उसे नहीं छोड़ा। सन्ध्या समाप्त करके किष्किंधा के उपवन में उसने रावण को छोड़ा तथा उसके आने का प्रयोजन पूछा। रावण बहुत थक गया था किंतु उसे उठाने वाला बालि तनिक भी शिथिल नहीं था। उससे प्रभावित होकर रावण ने अग्नि को साक्षी बनाकर उससे मित्रता की।
सीता हरण के पश्चात राम से मित्रता होने पर भी सुग्रीव को राम की शक्ति पर इतना विश्वास नहीं था कि वह शक्तिशाली वानरराज बालि को मार सकेंगे, अत: राम ने सुग्रीव के कहने पर अपने बल की परीक्षा दी। एक बाण से राम ने एक साथ ही सात साल वृक्षों को भेद दिया तथा अपने पांव के अंगूठे की एक ठोकर से दुंदुभी के सूखे कंकाल को दस योजन दूर फेंक दिखाया। सुग्रीव बहुत प्रसन्न हुआ तथा राम-लक्ष्मण समेत बालि से युद्ध करने गया। सुग्रीव के ललकारने पर बालि निकल आया तथा उसने सुग्रीव को मार भगाया। सुग्रीव ने बहुत दुखी होकर राम से पूछा कि उसने बालि को मारा क्यों नहीं। राम के यह बताने पर कि दोनों भाई एक-से लग रहे थे, अत: राम को यह भय रहा कि कहीं बाण सुग्रीव के न लग जाय। राम ने सुग्रीव का गजपुष्पी लता पहनकर फिर से युद्ध के लिए प्रेरित किया। बालि ने जब फिर से सुग्रीव की ललकार सुनी और लड़ने के लिए बाहर निकला तब तारा ने बहुत मना किया पर वह नहीं माना। युद्ध में जब सुग्रीव कुछ दुर्बल पड़ने लगा तो पेड़ों के झुरमुट में छिपे राम ने बालि को अपने बाण से मार डाला। मरते हुए बालि ने पहले तो राम को बहुत बुरा-भला कहा, क्योंकि इस प्रकार छिपकर मारना क्षत्रियों का धर्म नहीं है किंतु जब राम ने बालि को समझाया कि बालि ने सुग्रीव की पत्नी को हरकर अधर्म किया है तथा जिस प्रकार वनैले पशुओं को घेरकर छल से मारना अनुचित नहीं है, उसी प्रकार पापी व्यक्ति को दंड देना भी धर्मोचित हे। बालि ने सुग्रीव और राम से यह वादा लेकर कि वह तारा तथा अंगद का ध्यान रखेंगे, सुखपूर्वक देह का त्याग किया।*
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