कुएँ का गिरगिट

एक दिन श्रीकृष्ण-पुत्र प्रद्युम्न अपने कुछ साथियों के साथ जैसे चारुभानु, गद और साम्ब आदि के साथ उपवन के परिभ्रमण को आए। वह देर तक इधर-उधर घूमते फूलों की शोभा निहारते रहे और उनकी गन्ध से अपने को तृप्त करते रहे।
घूमते-घूमते उन्हें प्यास लग आई। वे प्यास बुझाने के लिए पानी ढूँढ़ते रहे पर दुर्भाग्यवश पानी उन्हें कहीं नहीं मिला। नगर के अन्दर तो कई सरोवर थे पर नई बस रही राजधानी के उपवनों में अभी तक जलाशय की व्यवस्था करने की बात किसी के ध्यान में नहीं आई थी।
श्रीकृष्ण-पुत्र प्रद्युम्न ने सोचा, वह पिता से कहकर इन उपवनों में सुन्दर स्वच्छ जलाशयों का निर्माण कराएँगे जिससे आगे चलकर किसी को पेयजल के संकट का सामना नहीं करना पड़े। पर यह तो भविष्य की बात थी। अभी जो सभी पिपासा से पीड़ित हो रहे थे, उसका क्या उपाय था।

घूमते-घूमते वे एक कुएँ के पास पहुँचे। उन्हें कुएँ को देखकर बहुत प्रसन्नता हुई। प्यास से व्याकुल उन लोगों ने सोचा कि उनकी प्यास अब शान्त होकर रहेगी। वे कुएँ के पास गये और उसके भीतर झाँका तो उनकी सारी आशा निराशा में परिवर्तित हो गई। कुएँ में एक बूँद जल नहीं था। पता नहीं वह कब से सूखा पड़ा था किन्तु उसमें एक विचित्र जीव को देख कर उनके आश्चर्य की सीमा नहीं रही। उसमें एक बहुत बड़ा गिरगिट पड़ा था। कुआँ काफी लम्बा-चौड़ा और गहरा था। गिरगिट का आकार किसी पर्वत की तरह लग रहा था। कुछ देर तक तो इन लोगों ने गिरगिट को कौतूहल पूर्वक देखा किन्तु शीघ्र ही उसकी छटपटाहट से द्रवित हो गये। वह कुएँ से निकलने को बेचैन था किन्तु लाख प्रयासों के बाद भी वह उससे बाहर नहीं निकल पा रहा था। वह कुएँ की दीवार पर, शक्ति लगाकर चढ़ने का प्रयास करता किन्तु थोड़ा ऊपर जाने के बाद ही फिसल कर गिर पड़ता। वह बारी-बारी से कुएँ के चारों दीवारों पर चढ़ने का प्रयास करता किन्तु थोड़ा ऊपर जाने के बाद ही फिसलकर गिर पड़ता।
इन लोगों को उसके कष्ट के निवारण का कोई उपाय नहीं सूझ रहा था। दीवारों से फिसलने और गिरने के कारण उसका शरीर लहूलुहान हो रहा था। दर्शकों को इन पर बहुत दया आई। उन्होंने पेड़ की डालियों और रस्सियों के सहारे उसको निकालने का प्रयास किया किन्तु इस पर्वताकार गिरगिट को निकालना आसान नहीं था। कोई भी रस्सी या पेड़ की डाली उसके भार को सहन नहीं कर पाती और टूट जाती। वे निराश हो गए और उन्होंने मन ही मन भगवान कृष्ण को स्मरण किया। वह तत्काल उस कुएँ के पास पहुँच गए। जिसमें वह गिरगिट गिरा पड़ा था। दर्शकों ने उन्हें बताया कि इस दुःखी जीव को निकालने का उन्होंने बहुत प्रयास किया परन्तु वे उसे निकालने में सफल नहीं हो सके। उसके दुःख से सभी दुःखी हैं।
उन्होंने आगे कहा, ‘पता नहीं कब से भूख-प्यास से पीड़ित इस अन्धे कुएँ में पड़ा है। आप सर्व-शक्तिमान हैं। कृपाकर इस निरीह प्राणी को इस अन्धकूप से निकालिए।’ भगवान श्रीकृष्ण के लिए यह कौन-सी बड़ी बात थी ? उन्होंने बाएँ हाथ से ही उस विशाल गिरगिट को कुएँ से बाहर निकाल दिया।
निकलते ही वह गिरगिट गिरगिट नहीं रहा। एक प्रकाशवान पुरुष के रूप में वह परिवर्तित हो गया। उसके सिर पर मुकुट और शेष शरीर पर बहुमूल्य वस्त्र और आभूषण शोभा पा रहे थे। उसका रंग इतना गोरा था कि लगता था कि वह कच्चे सोने से बना है। इस तेजोमय पुरुष को देखकर भगवान श्रीकृष्ण सब कुछ समझ गए किन्तु अन्य लोगों की जानकारी के लिए उन्होंने उससे पूछा—‘आप देखने से ही कोई देवपुरुष लगते हैं। आपको गिरगिट की योनि में जन्म लेकर इतना कष्ट क्यों सहना पड़ा ? निश्चित ही आप पूर्व जन्म में कोई पराक्रमी राजा-महराजा थे।’
उस पुरुष ने श्रीकृष्ण को प्रणाम करते हुए कहा, ‘आपका सोचना एकदम ठीक है। आप कोई अन्तर्यामी हैं ? आप से क्या छिपा है फिर भी आप पूछते हैं तो बताना ही पड़ेगा। क्योंकि आपकी मुझ पर अपार कृपा है। आपके दर्शन-मात्र से बिना कोई यज्ञ जाप या तपस्या किए गिरगिट की योनि से मेरा उद्धार हो गया।
‘मैं पहले नृग नामक राजा था। मेरे पास अपार सम्पत्ति थी। मैं उसे अपने भोग-विलास में नहीं लगाकर दूसरों के मध्य उनके दान में लगा रहता था। दान लेने वालों की मेरे यहां भीड़ लगी रहती थी। विशेषकर ब्राह्मणों की।
‘मैंने कई दुधारी गायों को बछड़ों के साथ ब्राह्मणों को दान दिया। दान देने के पूर्व मैं गायों के सींगों को सोने से मढ़वाना नहीं भूलता था।

‘उनके खुरों में चाँदी मढ़वाता था तथा उन्हें रेशमी वस्त्र, स्वर्णनिर्मित हार और अन्य आभूषणों से सजाकर ही दान करता था। भगवान ! मेरी दानशीलता प्रसिद्ध थी। मैंने गायें ही नहीं, भूमि, सोना, घर, घोड़े, हाथी, तिलों के पर्वत, चाँदी, शय्या, वस्त्र, रत्न आदि दान किए। अनेक यज्ञों का अनुष्ठान किया। बहुत से कुएँ जलाशय आदि बनवाए। भगवान कृष्ण ने पूछा, ‘इतना सब करने के बाद भी आपको यह निकृष्ट गिरगिट योनि क्यों प्राप्त हुई ?’
राजा नृग ने कहा ‘भगवान ने ठीक ही पूछा। एक अनजानी गलती से मेरी यह दुर्दशा हुई। एक दिन ऐसे तपस्वी ब्राह्मण की गाय, जो कभी दान नहीं लेता था मेरी गायों के झुण्ड में आ मिली। मुझे इसका कोई पता नहीं था। मैंने अन्य गायों की तरह उसे भी सजा-सँवार कर किसी अन्य ब्राह्मण को दान में दे दिया।
‘जब वह ब्राह्मण इस सजी-सजाई गाय को लेकर चला तो गाय के वास्तविक मालिक से उसकी मुलाकात हो गई।
उसने कहा, ‘यह गाय मेरी है तुम कहाँ लिये जा रहे हो ? इसको सजाने-सँवारने से मैं इसको पहचानने में भूल नहीं सकता।’
दान लिए ब्राह्मण ने कहा, ‘गाय तुम्हारी नहीं मेरी है क्योंकि राजा नृग ने मुझे इसे दान में दिया है। वे दोनों ब्राह्मण आपस में झगड़ते हुए मेरे समीप पहुँचे। एक ने कहा—‘यह गाय मुझे अभी-अभी दान में दी गई है।’ दूसरे ने कहा, ‘यदि ऐसी बात है तो राजा द्वारा मेरी गाय चुरा ली गई है।’
मैंने दोनों ब्राह्मणों से अनुनय-विनय की और कहा, ‘मैं लाख उच्चकोटि की गाय दूँगा। आप लोग यह गाय मुझे वापिस कर दीजिए।’
गाय के वास्तविक मालिक ने कहा, ‘मैं अपनी गाय के बदले कुछ नहीं लूँगा और वह चला गया।’
दूसरे ने कहा, ‘एक लाख क्या कई लाख गाएँ भी मुझे दीजिए तो भी मैं लेने को तैयार नहीं।’ और दूसरा ब्राह्मण भी चला गया।
‘कालक्रम से मेरी मृत्यु हुई। मैं यमलोक पहुँचा।’ यमराज ने पूछा, ‘आप ने बहुत पुण्य कार्य किए हैं किन्तु एक छोटा-सा पाप भी आपसे हुआ है। भले ही अनजाने में हुआ हो। आप बताइए कि आप पहले अपने पाप का फल भोगेंगे अथवा पुण्य का ?’ ‘‘मैंने कहा, ‘पहले पाप का ही भोग लेता हूँ।’ मेरे कहते ही मैं विशाल गिरगिट बन कर धरती पर आ गिरा। यही मेरी कहानी है।’’

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